सच तो यह है कि संसद में बहुमत होने पर एक ब्रिटिश अथवा भारतीय प्रधानमंत्री वह सब कर सकता है जो जर्मन सम्राट या अमरीकी राष्ट्रपति भी नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री कानून बदल सकता है, टैक्स लगा सकता है, हटा सकता है और राज्य के सभी बलों को निर्देश दे सकता है। इसी पर थोड़े विस्तार में चर्चा-
हमारे देश में ब्रिटिश प्रणाली की संसदीय व्यवस्था लागू है। दोनों में सिर्फ इतना फर्क है कि वहां राज्य की प्रमुख एक महारानी हैं जो जीवन पर्यंत राज्य प्रमुख रहेंगी और उनके बाद उनके परिवार के उत्तराधिकारी को यह पद खुद-ब-खुद मिल जाएगा जबकि भारतवर्ष में राज्य के प्रमुख राष्ट्रपति हैं जिनका कार्यकाल पांच वर्ष का होता है और राज्य और केंद्र में चुने हुए जनप्रतिनिधि राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं।
हमारे देश में एक धारणा व्याप्त है कि अमरीकी प्रणाली से चुना गया राष्ट्रपति तानाशाह जैसा होता है क्योंकि राष्ट्रपति बदलने पर पूरी नौकरशाही बदल जाती है। राष्ट्रपति किसी को भी अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर सकता है और वह किसी भी तरह का कोई भी निर्णय ले सकता है। दूसरी ओर संसदीय व्यवस्था में बहुमत प्राप्त दल अथवा गठबंधन में शामिल संसद सदस्य अपने नेता का चुनाव करते हैं, जो प्रधानमंत्री बनता है। प्रधानमंत्री संसद के निर्वाचित सदस्यों में से ही अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगी चुनता है और यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया हो जो संसद का सदस्य न हो तो उसे छह माह के अंदर किसी सदन में चुना जाना अनिवार्य होता है। संसदीय व्यवस्था में संसद की सर्वोच्चता की अवधारणा है। जिसका अर्थ यह है कि प्रधानमंत्री और उनकी सरकार अपने हर कार्य के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी हैं। संसद कानून बनाती है, प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी, यानी कार्यपालिका, संसद के बनाए कानूनों के अनुसार शासन-प्रशासन का कामकाज चलाते हैं। पहली निगाह में ऐसा लगता है कि संसदीय प्रणाली में सब कुछ संसद की इच्छा के अनुसार चलता है और अमरीकी पद्धति की राष्ट्रपति प्रणाली में सब कुछ एक व्यक्ति, यानी राष्ट्रपति की इच्छा के अनुसार चलता है और उसे असीमित शक्तियां प्राप्त हैं।
हम इन दोनों पद्धतियों का थोड़ा और विश्लेषण करें उससे पहले मैं आपको दो बातें याद दिलाना चाहूंगा। पहली यह कि हमारे देश में ब्रिटिश प्रणाली की शासन व्यवस्था लागू है और दूसरी यह कि हम जिस ब्रिटिश प्रणाली को आदर्श मानकर यह समझते हैं कि यहां प्रधानमंत्री के अधिकार सीमित हैं, उसी ब्रिटेन के एक पूर्व प्रधानमंत्री ग्लैडस्टोन ने अपने बारे में चुटकी लेते हुए एक बार कहा था — ”ऐसा कोई अन्य व्यक्ति नहीं है, जिसका औपचारिक पद या विशेषाधिकार दिखने में इतने कम हों, पर शक्ति इतनी अधिक।”
अमरीकी राष्ट्रपति अपने देश के किसी भी नागरिक को अपने मंत्रिमंडल में ले सकता है। वे सदस्य चूंकि संसद के सदस्य नहीं होते अत: राष्ट्रपति पर चुनाव को लेकर बंदिशें नहीं हैं। लेकिन राष्ट्रपति जिन्हें अपने मंत्रिमंडल के लिए चुनता है, वे अक्सर अपने विषय के विशेषज्ञ और प्रतिष्ठित व्यक्ति होते हैं। सबसे बड़ी बात है कि राष्ट्रपति अपने मंत्रिमंडल के लिए जिन सदस्यों का नाम प्रस्तावित करता है, उसे उनके लिए संसद से मंजूरी लेनी पड़ती है। किसी भी अन्य नियुक्ति के लिए भी राष्ट्रपति को संसद की मंजूरी लेना आवश्यक है। अपने हर कदम के लिए, हर आदेश के लिए, हर खर्च के लिए वह संसद की मंजूरी लेता है। राष्ट्रपति सेना को युद्ध का आदेश दे सकता है लेकिन चूंकि उसके लिए होने वाले खर्च की मंजूरी की शक्ति संसद के पास है अत: राष्ट्रपति को उसके लिए भी देर-सवेर संसद से मंजूरी लेनी ही पड़ती है। यही कारण है कि अमरीका के दो सौ सालों के इतिहास में एक भी राष्ट्रपति तानाशाह नहीं बन सका, ट्रंप भी इसका अपवाद नहीं हैं।
अमरीकी प्रणाली की दूसरी सबसे बड़ी खूबी वहां की संसदीय व्यवस्था है। वहां संसद में कोई कानून पास होने या पास न हो पाने से राष्ट्रपति के कार्यकाल पर कोई असर नहीं होता। राष्ट्रपति कानून नहीं बनाता और किसी कानून से उसकी कुर्सी को खतरा नहीं होता। किसी भी बिल के कानून बनने के लिए 60 प्रतिशत सदस्यों की सहमति आवश्यक है, इसलिए अक्सर पक्ष और विपक्ष दोनों को इस मामले में एक-दूसरे से सहयोग करना पड़ता है। बिल की हर धारा पर खुल कर बहस होती है और अक्सर अच्छी गुणवत्ता के जनहित के ही कानून पास हो पाते हैं। संसद का कोई भी सदस्य बिल पेश कर सकता है और उसका पास होना या न होना उसकी गुणवत्ता पर निर्भर करता है।
भारत में प्रचलित संसदीय व्यवस्था में जिस दल अथवा गठबंधन को बहुमत मिलता है, उसका नेता प्रधानमंत्री बनता है। यदि सरकार द्वारा पेश किया गया कोई बिल संसद में गिर जाए तो सरकार को त्यागपत्र देना पड़ता है। इससे बचने के लिए सत्तारूढ़ दल अपने सदस्यों को ह्विप जारी करता है, जिसके कारण उनका संसद में उपस्थित रहना और सरकारी बिल के पक्ष में मत देना आवश्यक हो जाता है, चाहे वह उससे सहमत हो या न हो। विपक्ष का बहुमत नहीं होता इसलिए न तो वह किसी बिल को रुकवा सकता है न उसमें संशोधन करवा सकता है, न ही अपनी ओर से कोई बिल पेश करके उसे पास करवा सकता है। दरअसल, संसद में विपक्ष की भूमिका शोर मचाने से अधिक कुछ भी नहीं है। बात यहीं खत्म नहीं होती। किसी विपक्षी सदस्य द्वारा पेश किया गया बिल निजी बिल ही माना जाता है, सत्तारूढ़ दल का कोई ऐसा सदस्य, जो मंत्री नहीं है, यदि कोई बिल पेश करे तो वह भी निजी बिल ही माना जाता है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि हमारे देश में सन 1970 के बाद एक भी निजी बिल पास नहीं हुआ है। सीधा-सा मतलब यह है कि कानून संसद नहीं, सरकार बनाती है। इस पर तुर्रा यह कि बहुत-से सरकारी बिल बिना किसी बहस के पास कर दिए जाते हैं।
प्रधानमंत्री यदि शक्तिशाली हो तो उसे न संसद की परवाह होती है, न मंत्रिमंडल की। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी ऐसे ही प्रधानमंत्री थे और अब नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भी यही नज़ारा है। देश भर को हिला देने वाले नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े फैसलों में भी संसद या मंत्रिमंडल की कोई भूमिका नहीं थी। नोटबंदी में सारा देश लाइनों में लग गया, कई लोगों की मृत्यु तक हो गई, लेकिन प्रधानमंत्री की कोई जवाबदेही नहीं है। वे अब तक यही दावा कर रहे हैं कि इससे काला धन खत्म हो गया जबकि स्विस नैशनल बैंक की हालिया रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 में स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के धन में 50 प्रतिशत की वृद्धि हो गई है।
संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री का एकछत्र राज्य चलता है। एक प्रकार से यह लोकतंत्र की तानाशाही है। यही कारण है कि अब देश में राष्ट्रपति प्रणाली या मिश्रित प्रणाली को आजमाने के लिए संविधान की समग्र समीक्षा की चर्चा चली है और बहुत से संगठनों व राजनीतिक दलों ने इसके पक्ष में आवाज़ उठाई है।