इसे ऐसे समझें कि अगर रुपये का अवमूल्यन होता है, तो इसका मतलब होगा कि अब एक डॉलर खरीदने के लिए आपको ज्यादा रुपये खर्च करने पड़ेंगे, यानी रुपये की कीमत कम हो जाएगी।
डॉलर के मुकाबले रुपये में लगातार गिरावट जारी है। मुद्रा का मूल्य कभी भी स्थायी नहीं रहता, उसमें हमेशा परिवर्तन होते रहते हैं। वैसे तो रुपये की कीमत मुद्रा बाजार में डॉलर की मांग के मुताबिक घटती-बढ़ती रहती है, जिसमें कई बार स्वाभाविक तौर पर इसका अवमूल्यन होता है, तो कभी अधिमूल्यन (कीमत में बढ़ोतरी)। लेकिन जब कोई सरकार अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करने का फैसला करती है, तो इसके काफी दूरगामी परिणाम होते हैं।
तमाम तकनीकी विकास के बावजूद भारत आज भी एक कृषि प्रधान देश है। हमारा देश आज भी गांवों में बसता है। हालांकि यह भी सच है कि गांवों में भी धीरे-धीरे आधुनिकता की लहर पहुंच रही है, तो भी ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था आज भी कृषि आधारित है। कभी सारी दुनिया का यही हाल था। पूरा विश्व ही कृषि प्रधान था। तब जिसके पास सबसे ज्यादा जमीन होती थी वह सबसे अमीर माना जाता था। समय बदला और फिर सारा धन बहकर उत्पादन कार्य से जुड़े कारखानेदारों के पास आने लगा। इंटरनेट और सूचना तकनीक के उदय से ‘नॉलेज इकोनोमी’ का शोर बढ़ा और तकनीक को नियंत्रित करने वाले लोग अमीर हो गए। ‘रिच डैड, पुअर डैड’ सीरीज़ के जनक रिचर्ड कियोसाकी कहते हैं कि समय की करवट के साथ समृद्धि का प्रवाह बदल जाता है, जिसका अर्थ है कि अमीरी के साधन और पैमाने में परिवर्तन हो गया। जो लोग किन्हीं कारणों से पहले अमीरों की श्रेणी में शुमार थे, यदि वे खुद को नहीं बदलते, तो धीरे-धीरे उनका धन कम होता चला जाएगा और ऐसे नए लोगों के पास चला जाएगा, जो नए जमाने की आवश्यकताओं के अनुरूप होंगे या उसके अनुरूप खुद को ढाल लेंगे। ऐसा ही एक मंजर अब हमारे सामने है जब परिवर्तन की लहर की शुरुआत हो चुकी है और यह लहर जैसे-जैसे शक्तिशाली होगी, धन के प्रवाह का रुख वैसे-वैसे बदलेगा। इस लहर को समझने से पहले हमें इसकी पृष्ठभूमि को समझने की आवश्यकता है। सन 1933 में वैश्विक मंदी से उबरने के लिए अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट ने सोना और डॉलर का संबंध समाप्त कर दिया, ताकि वे अर्थव्यवस्था में आवश्यक धन का निवेश कर सकें और ब्याज की दरों पर नियंत्रण पाया जा सके।
उनका यह निर्णय लाभदायक रहा और अमरीका मंदी के जाल से बाहर आ सका। द्वितीय विश्व युद्ध के कारण हुई बड़ी तबाही के बाद लगभग सभी देशों ने अपनी मुद्रा को सोने से अलग कर लिया, क्योंकि जितने नोट छापने आवश्यक थे उसकी तुलना में उन देशों के पास उतना सोना उपलब्ध नहीं था। मुद्रा को सोने से अलग करने का चलन यहीं से शुरू हुआ। इसके बावजूद सन् 1971 तक अमरीका ने विदेशी सरकारों को डॉलर के बदले उतने मूल्य का सोना देने का क्रम जारी रखा। सन 1971 में तत्कालीन राष्ट्रपति निक्सन ने यह सुविधा भी वापस ले ली और डॉलर पूरी तरह से सोने से मुक्त हो गया। इसके बाद डॉलर छापने के लिए देश के पास स्वर्ण भंडार होना या न होना बिलकुल भी आवश्यक नहीं रह गया। विश्व मुद्रा कोष 185 से भी अधिक देशों की आर्थिक सेहत की निगरानी करता है और विश्व स्तर पर मुद्रा के विनिमय के नियम तय करता है। पिछले लगभग 80 वर्षों से अमरीकी डॉलर वैश्विक मुद्रा के रूप में मान्यता प्राप्त है। सन 1999 में यूरो को भी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में मान्यता मिली और सन 2015 में चीनी मुद्रा युवान को यह गौरव हासिल हुआ। हाल ही में विश्व मुद्रा कोष ने युवान को विदेशी विनिमय के लिए स्वीकृति प्रदान कर दी है।
इसके असर धीरे-धीरे सामने आएंगे। चीन के उत्पादनों से विश्व बाजार अटा पड़ा है। चीन के निर्मातागण अब कुछ विशिष्ट बाजारों के लिए उच्च गुणवत्ता की ओर भी फोकस कर रहे हैं। चीनी मुद्रा युवान के डॉलर की बराबरी पर आने के असर से यह संभव है कि धीरे-धीरे डॉलर कुछ कमजोर हो और युवान कुछ ज्यादा मजबूत हो। यह परिवर्तन का समय है। परिवर्तन की लहर की शुरुआत हो चुकी है। जैसे-जैसे यह मजबूत होगी, वैसे-वैसे यह पता चलेगा कि कौन-से नए लोग ज्यादा अमीर होते हैं और कितने पुराने अमीरों की संपत्ति का ह्रास होता है। जब-जब डॉलर को स्वर्ण भंडार से अलग किया गया, तब-तब उसका अवमूल्यन हुआ, लेकिन उससे अमरीकी अर्थव्यवस्था को नुकसान नहीं हुआ, बल्कि वह मंदी के अभिशाप से बाहर आ सका। एक समय ऐसा भी था, जब अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश जापान में जाकर लगभग गिड़गिड़ाते हुए अमरीकी अर्थव्यवस्था को सहारा देने की प्रार्थना करने पर विवश हो गए थे, लेकिन बहुत-सी वैश्विक घटनाओं के कारण अंततः डॉलर मजबूत होता चला गया। अब युवान के डॉलर की बराबरी पर आ जाने के बाद जानकारों को आशंका है कि डॉलर कमजोर हो सकता है और युवान मजबूती की राह पर बढ़ सकता है। इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था के संतुलन में परिवर्तन संभव है और यदि परिवर्तन की लहर चल पड़ी, तो यह इतनी शक्तिशाली होगी कि कई पुराने अमीरों को धराशायी कर देगी।
आइए, अब इसे भारत के संदर्भ में देखते हैं। हमारी मुद्रा रुपया डॉलर के मुकाबले लगातार कमजोर होता जा रहा है। इस समय रुपया अब तक के अपने सबसे निचले स्तर पर है और देश में इसे लेकर खूब शोर मच रहा है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि आम जनता मुद्रा के अवमूल्यन की बारीकियों को नहीं समझती। नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे और भाजपा विपक्ष में थी, तो रुपये के अवमूल्यन पर न केवल गरमा-गरम बहस होती थी, बल्कि भाजपा नेताओं ने इसे देश की अस्मिता से जोड़ दिया। रुपये के अवमूल्यन को देश का अपमान बताया जाने लगा। मोदी और भाजपा आज अपनी इसी अति का खामियाजा भुगत रहे हैं कि अगर रुपये का अवमूल्यन हो रहा है, तो मोदी को आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है, क्योंकि इस प्रथा की शुरुआत भी उन्होंने ही की थी। दरअसल, रुपये का अवमूल्यन सदैव हानिकारक ही हो, ऐसा नहीं है। रुपये के अवमूल्यन से विदेशों में जाकर शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों का खर्च एकदम से बढ़ जाता है और आयात महंगा हो जाता है, लेकिन इससे निर्यातकों को लाभ होने के अवसर बढ़ जाते हैं, क्योंकि निर्यात बढ़ जाता है। चीन ने भी इसी नीति पर चलते हुए अपना निर्यात बढ़ाया है।
मुद्रा के अवमूल्यन के अपने लाभ और हानियां हैं। समस्या यह है कि मोदी सरकार की विदेश नीति और अर्थ नीति की कोई एक दिशा नहीं नजर आती। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि रुपये का अवमूल्यन मोदी सरकार के लिए चुनौती है या वह इसे एक नए अवसर में बदल देगी। मोदी सरकार के पास शुरू से ही प्रतिभा की कमी रही है और केंद्रीय मंत्रिमंडल में तीन पूर्व नौकरशाहों को शामिल करने के बावजूद प्रतिभा के संकट पर काबू नहीं पाया जा सका है। अनुभव बताता है कि दुनिया की कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका समाधान न हो। हर चुनौती अपने आप में एक अवसर है। समस्या सिर्फ तब होती है, जब हम चुनौती को अवसर के बजाय समस्या मान लें। व्यावहारिक जीवन में मोदी ने बहुत बार ऐसा कर दिखाया है। इस बार भी वे इसे एक नए अवसर में बदल पाएंगे या नहीं, यह समय ही बताएगा।